Thursday, August 15, 2013

ये आज भी जिन्दा ही हैं.... प्रेमनाथ



                एक हरफ़नमौला  अभिनेता प्रेमनाथ!

प्रेमनाथ का नाम सुनते ही हिन्दी फ़िल्मों के दर्शकों के सामने उस चरित्र अभिनेता के कितने ही रूप सामने आ जाते हैं। कहीं वे ‘जहोनी मेरा नाम’ में पद्मा खन्ना के साथ “हुस्न के लाखो रंग...” में अय्याश राय साहब बने दिखते हैं, तो कहीं उन्हें ‘बहारों के सपने’ के वो सुटबुट पहने मिल मेनेजर की हैसियत से नजर आते हैं और वही प्रेमनाथ ‘बोबी’ में मछवारे जेक ब्रेगेन्ज़ा बने लुंगी और बनियान में अपनी बेटी की खुशीयों के लिए रोते-गिडगिडाते भी दिखाई देते हैं। मगर प्रेमनाथ हमेशा से चरित्र अभिनेता नहीं थे। अपने ज़माने में वे भी हीरो रह चूके थे। बल्कि १९४८ में आई उनकी प्रथम पिक्चर ‘अजीत’ भारत की दुसरी कलर फ़िल्म थी।


 
वैसे देखा जाय तो ‘अजीत’ १६ एम एम में शुट होकर ३५ एम एम में परिवर्तित होने वाली पहली कलर फ़िल्म थी। प्रेमनाथ का जन्म पेशावर में होने के बावजुद उनका बचपन एक से अधिक शहरों और राज्यों में बीता था; क्योंकि उनके पिताजी रायबहादुर करतारनाथ पुलिस के बडे अफसर थे। वे

पढाई में इतने अच्छे थे कि पिताजी प्रेमनाथ को कलैक्टर - आईसीएस- बनने की परीक्षा देने के लिए लंदन भेजना चाहते थे। किन्तु प्रेमनाथ को अपनी फुफा के बेटे पृथ्वीराज कपूर की तरह मनोरंजन के क्षेत्र में जाने की इच्छा थी। प्रेमनाथ के पृथ्वीजी से पूछने पर उन्होंने सलाह दी कि बी.ए. का अभ्यास पूरा होने पर वे उनके पास बम्बई चले आयें। इस लिए जब १९४४ में वे बम्बई आये तो पृथ्वीराज के साथ रहे। उन्होंने प्रेमनाथ के पिताजी की परमिशन लेने के लिए अपने बेटे राजकपूर को भेजा। राजजी ने वहीं पर खुबसुरत क्रिश्नाजी को देखा और उनके होनेवाले ससुरजी ने राज कपूर को!

राजकपूर की शादी अंततः क्रिश्नाजी से हुई और प्रेमनाथ कपूर परिवार से ज्यादा जुड गए। इस लिए आर.के. फ़िल्म्स की ‘आग’ और ‘बरसात’ दोनों में प्रेमनाथ थे। उन दिनों मधुबाला के साथ प्रेमनाथ की जोडी काफी जमी थी। दोनों की ‘बादल’, ‘घर जमाई’, ‘साकी’ ‘और ‘आराम’ जैसी फ़िल्में आईं और उन दिनों के गोसीप में ये चर्चा काफी थी कि मधुबाला किस से शादी करेगी... प्रेमनाथ या दिलीपकुमार? मधुबाला के साथ प्रेमनाथ की एक और फ़िल्म थी ‘औरत’। उस समय प्रेमनाथ के सेक्रेटरी हुआ करते थे आज के सफल निर्माता-निर्देशक करण जोहर के पिताजी यश जोहर। यशजी के जरिये फ़िल्म की अन्य एक हीरोईन बीनाराय से अधिक पहचान हुई और आखिर  में उनके साथ शादी कर ली।


उन दिनों प्रेमनाथ को बतौर हीरो अच्छा पैसा मिलता था; तभी उन्होंने एक ऐसा कदम उठाया कि सब कुछ खो दिया! प्रेमनाथ ने अपनी करियर के उस अच्छे दौर में ‘प्रिजनर ओफ गोलकोन्डा’ नामक फ़िल्म का निर्माण किया। उस में कथा सुभाषचन्द्र बोस की इन्डियन नेशनल आर्मी के सैनिकों की आज़ादी के बाद कोई खैर खबर नहीं पूछता था, उस पृष्ठभूमि की थी। उस के लिए प्रेमनाथ ने ‘आईएनए’ के जनरल शाहनवाज़ से भी जानकारीयां प्राप्त की थी। परंतु, सेन्सर को शायद कई बातें आपत्तिजनक लगी। लिहाजा फ़िल्म तैयार हो जाने के बाद भी प्रदर्शित करने का प्रमाणपत्र नहीं ले सकती थी। इस लडाई में काफी समय व्यतित हो जाने के बाद आखिरकार प्रेमनाथ को सेन्सर को आपत्तिजनक लगते सारे द्दश्य काटने पडे। परिणाम? ‘प्रिजनर ओफ गोलकोन्डा’ पहले सप्ताह में ही फ्लॉप हो गई। आर्थिक हानि इतनी हुई कि १९५४ में प्रेमनाथ फ़िल्मी दुनिया तथा बम्बई से दूर चले गए और १२ साल बाद १९६६ में वापिस आये!


उन वर्षों में वे देश-विदेश में घुमते रहे और इस दौरान वे भक्ति और आध्यात्मिकता की और भी मुडे। अब उनके गले में रुद्राक्ष से लेकर विविध पथ्थरों की मालाएं होतीं थीं। १९६६ में विजय आनंद ने उन्हें ‘तीसरी मंझिल’ के ‘कुंवर साहब’ का वो यादगार रोल देकर एक नये ही प्रेमनाथ से दर्शकों का परिचय करवाया। ‘नायक प्रेमनाथ’ की तुलना में कई ज्यादा मंजे हुए एक्टर बनकर लौटे थे ये प्रेमनाथ। ‘तीसरी मंझिल’ की उनकी भूमिका के एक एक द्दश्य में राजघराने रुआब छलकता था। मगर विजय आनंद को उन से और भी ज्यादा काम लेना था और उन्हें लिया ‘जहोनी मेरा नाम’ में!

‘जहोनी मेरा नाम’ अपने समय की सबसे सफल फ़िल्मों में से एक थी और देव आनंद तथा प्राण जैसे कलाकारों के साथ कांटे की टक्कर की थी प्रेमनाथ ने उस फ़िल्म में। उस का एक द्दश्य फ़िल्म देखने वाले कभी नहीं भूलेंगे। उस सीन में प्रेमनाथ असली भुपिन्दरसिंग बने सज्जन को जिस अंदाज़ में डांटते फटकारते हैं, वो अभिनय किसी भी कलाकार के लिए एक्टींग का अच्छा खासा कोर्स हो सकता है। एक करीब मोनोलोग सा आठ - दस मिनट लंबा डायलोग जिस खुमारी से और गुस्से से प्रेमनाथ बोलते और विविध मुद्राओं के साथ अभिनित करते हैं, वो देखते ही बनता है।



इसी तरह से ‘बहारों के सपने’ में वे अपने ओफिस में आये मिल मजदुर नाना पलशीकर को बेटे (राजेश खन्ना) की ‘बी.ए.’ की डीग्री के बारे में खरी खरी सुनाते हैं (यहां हज़ारों-लाखों बीए जुतियां चट खाते फिरते हैं), वो सीन भी जबरदस्त था। इस इनींग्स में प्रेमनाथ को मनोजकुमार ने ‘शोर’ में एक पठाण ‘खान बादशाह’ का रोल दिया था। पाठकों को याद होगा कि यह वही भूमिका थी जो प्राण ने ये कहकर ठुकराइ थी कि वे ‘जंजीर’ में पठाण बने थे। ‘शोर’ में प्रेमनाथ एक गीत “जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम...” में भी साथ देते हैं।






प्रेमनाथ को मनोजकुमार ने ‘रोटी कपडा और मकान’ में भी सरदार हरनामसिंग की भूमिका दी थी। ऐसे ही एक अन्य एक्टर डीरेक्टर फ़िरोज़ खान ने अंग्रेजी फ़िल्म ‘गोडफादर’ पर आधारित अपनी फ़िल्म ‘धर्मात्मा’ में मुख्य किरदार यानि परोपकारी डोन प्रेमनाथ को ही दिया था। तो सुभाष घई ने भी ‘कालीचरण’ में एक पुलिस अधिकारी ‘आइ.जी.पी खन्ना’ बनाया था। सफल चरित्र अभिनेता के इस दौर में प्रेमनाथ जी ने जिन फ़िल्मों में अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए उन में से कुछ को ही याद करें तो भी कितनी सारी फ़िल्में गिनी जा सकतीं हैं?.... ‘अमीर गरीब’, ‘धरम करम’, ‘इश्क इश्क इश्क’, ‘प्राण जाये पर बचन न जाये’, ‘नागिन’, ‘दस नम्बरी, ‘पेहचान’, ‘चला मुरारी हीरो बनने’, ‘आपबीती’, ‘जानेमन’, ‘कबीला’, ‘हीरालाल पन्नालाल’, ‘शालीमार’, ‘गौतम गोविन्दा’, ‘जानी दुश्मन’, ‘चांदी सोना’, ‘क्रोधी’, ‘देशप्रेमी’, ‘कर्ज़’ इत्यादि इत्यादि!





प्रेमनाथ अपनी दुसरी पारी में सुपर हीट थे। उनका बेटा प्रेम किशन ‘दुल्हन वोही जो पिया मन भाये’ जैसी सफल फ़िल्म का हीरो था। तो उनके एक भाई राजेन्द्रनाथ हास्य अभिनेता और अन्य नरेन्द्रनाथ बतौर विलन हिन्दी सिनेमा में व्यस्त थे। उनकी दुसरी बहन उमा जी के पति प्रेम चोपडा भी अपनी जगह बना चूके थे। ऐसे में प्रेमनाथ अपने आप को ‘जनरल’ कहते और अपने निजी स्टाफ को ‘एडीसी’ बुलाते। किसी के लिए ‘मुन्सिपालिटी’ शब्द का प्रयोग करते तो किसी का नाम ‘जेम्स
बोन्ड’ कर देते थे। उनका स्वभाव कई रंगो से रंगा हो गया था। कभी वे मंत्र-तंत्र की बात करते तो कभी मेग्नेट थेरपी की। ऐसे में १९८५ में राजेशखन्ना की मुख्य भूमिका वाली ‘हमदोनो’ के बाद ५८ वर्ष की उम्र में एक सरकारी अफसर की तरह उन्होंने फ़िल्मों से निवृत्ति ले ली! उस के सात साल बाद १९९२ में नवम्बर की ३ तारीख को इस हरफ़नमौला कलाकार का निधन हुआ। मगर परदे पर अभिनित अपने किरदारों से प्रेमनाथ आज भी जिन्दा ही हैं। 



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